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महाराजा अग्रसेन

महाराजा अग्रसेन अहिंसा और शांतिदूत के चिह्न के रूप में माने जाते है,, महाराजा अग्रसेन त्याग, करुणा, अहिंसा, शांति और समृद्धि के लिए एक सच्चे समाजवादी और एक अवतार थे. सम्राट अग्रसेन प्रतापनगर के राजा बल्लभ पैदा हुए थे. वह ज्येष्ठ पुत्र थे. महालक्ष्मी व्रत के अनुसार, तब द्वापर युग का अंतिम चरण था. चालू कैलेंडर के अनुसार महाराज अग्रसेन का जन्म 5185 साल पहले हुआ. राजा बल्लभ एक सूर्यवंशी (सूर्य से वंश) रजा थे.
राजकुमार अग्रसेन जब बहुत छोटे थे, तब भी राजकुमार अग्रसेन उनकी दया के लिए बहुत अच्छी तरह से जाने जाते थे . वह कभी किसी के खिलाफ भेदभाव नहीं रखते, और वे किसी भी प्रकार के न्याय पुरे अध्ययन के बाद ही करते.
जब अग्रसेनजी ने युवावस्था में कदम रखा उन्होंने राजा नागराज की राजकुमारी माधवी के स्वयंवर में भाग लिया. दुनिया भर से कई राजाओं और इंद्र देव ने भी भाग लिया. स्वयंवर में राजकुमारी माधवी ने राजकुमार अग्रसेन का चयन किया है. यह शादी दो अलग अलग परिवार की संस्कृतियों के साथ संपन्न हुई, ऐसा इसी लिए हुआ क्युकी राजकुमार अग्रसेन एक सूर्यवंशी और राजकुमारी माधवी एक नागवंशी थी. इंद्र देवता राजकुमारी माधवी की सुंदरता पर आकर्षित थे. और उन्होंने स्वयंवर जित कर शादी करने की योजना बनाई थी. जब राजकुमारी माधवी का विवाह अग्रसेनजी से हुआ तब इंद्र देवता बहुत क्रोधित हुए. और इंद्र देवता ने प्रताप नगर पर वर्षा की रोक लगादी. जिस कारन प्रताप नगर में भयानक आकाल पड़ा जिस कारन कई लोगों की जान गई. इसी कारन सम्राट अग्रसेन ने इंद्र के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया, और क्योंकि वे धर्म के पक्ष, सम्राट अग्रसेन की सेना ने इंद्र की सेना को परास्त कर दिया. और इस स्तिथि में नारदजी ने मध्यस्थता की और शांति वार्ता पर बात चित की और सुलह करवाई.
अग्रसेन महाराज ने कशी जाकर भगवन शिव की तपस्या की, तपस्या के जब शिव जी प्रसन्न होकर प्रगट हुए और सलाह दी के वे महालक्ष्मी की पूजा और ध्यान करे.अग्रसेन महाराज ने महालक्ष्मी की आराधना शुरू करदी. और महालक्ष्मी प्रसन्न हुई और दर्शन दिए. और अग्रसेन महाराज को सलाह दी के वे अपने वैश्य समुदाय को लेकर एक नया राज्य बनाये और सभी को अपने कारोबार हेतु प्रेरित करे. और माता लक्ष्मी के आहिर्वाद दिया के वे उनका सदेव साथ देंगी. और इसी कारन अग्रसेन महाराज ने क्षत्रिय कुल को त्याग वैश्य धर्म अपनाया.

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अग्रोहा शहर का जन्म

देवी महालक्ष्मी के आशीर्वाद के साथ राजा अग्रसेन ने नए राज्य हेतु रानी माधवी के साथ भारत भ्रमण (यात्रा) शुरू की. अपनी यात्रा के दौरान वे एक जगह रुके जहाँ उन्होंने देखा के कुछ शेर और भेदिये के बचे खेल रहे थे. राजा अग्रसेन ने रानी माधवी से कहा के ये बहुत ही शुभ संकेत है के क्षेत्र वीरभूमि है. और फिर राजा अग्रसेन ने उस भूमि को अग्रोहा नाम दिया और अपना राज्य बनाने का फैसला किया. आगे चलकर अग्रोहा कृषि और व्यापार से निखरे रूप में समृद्ध बन गया.
महाराज अग्रसेन ने अपने लोगों की समृधि के लिए कई यज्ञों (बलिदान) का आयोजन किया. उन दिनों में यज्ञ का आयोजन समृद्धि का प्रतीक था. ऐसे ही एक यज्ञ के दौरान महाराज अग्रसेन देखा के एक घोडा यज्ञ की वेदी पर बलि के लिए लाया गया, पर वो वेदी से दूर जाने की कोशिश कर रहा था. इस दृश्य को देख कर महाराज अग्रसेन का दिल दया से भर गया. और उन्होंने सोचा के ये कैसा त्याग है के हम मूक जानवरों की बलि चढ़ाये. और इसी समय महाराज अग्रसेन के मन मे अहिंसा का विचार आया. उन्होंने इस बात पर मंत्रियों के साथ विचार - विमर्श किया. पर जब मंत्रियों ने कहा के इस विचार से आस पास के राज्य हमें कमजोर समझेंगे. और अग्रोहा पर आक्रमण का खतरा बढ़ सकता है. जब महाराज अग्रसेन ने उल्लेख किया है कि अहिंसा और न्याय कोई कमजोरी नहीं बल्कि एक दुसरे के प्रति प्रेम और अपनापन जगाता है. उसके बाद उन्होंने घोषणा की है कि वहाँ कोई हिंसा और उनके राज्य में जानवरों की हत्या नहीं होगी.
महाराज अग्रसेन 18 महायज्ञ का आयोजन किया. और अपने राज्य को 18 पुत्रो मई विभाजित कर दिया.और गुरुओं के आदेश पर 18 गोत्रो का निर्माण किया. आज हम १८ गोत्रो को भगवतगीता के 18 अध्यायों की तरह देखते है. वैसे तो ये अध्याय एक दुसरे से अलग है पर ये सभी मिलकर ही 1 बनते है और एक दुसरे से जुड़े है. इस व्यवस्था के तहत, अग्रोहा बहुत अच्छी तरह से समृद्ध और निखरा हुआ राज्य बनगया. अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में महाराज अग्रसेन सिंहासन के लिए उनके ज्येष्ठ पुत्र "विभु" को चुना और वे वानप्रस्थ आश्रम ले कर वन में चले गए.
अग्रोहा की समृद्धि, पड़ोसी राजाओं को असंतोष होने लगा. और कई बार अचानक हमला भी हो जाता. इन युधो के कारन अग्रोहा को कई समस्याओ का सामना करना पड़ा. सभी राज्यों के युद्ध का कारन अग्रोहा की ताकत को कम करना था. एक बार अग्रोहा बड़ी आग में घिर गया. आग की वाजग से वहां के नागरिक शहर छोड़ कर चले गए. और भारत के दुसरे क्षेत्रों में बिखर गए. आज वही लोग "अग्रवाल" के नाम से प्रसिद्ध है. आज भी 18 गोत्रो के अगर्वंशी भारत देश ही नहीं सरे विश्व में जाने जाते है. और महाराज अग्रसेन की नीतिओ पर चलते है. महाराज अग्रसेन के मार्गदर्शन के प्रति के रूप में अगरवाल सामाजिक सेवा के क्षेत्र में अग्रणी हैं.